Mokshada Ekadashi Vrat Katha मोक्षदा एकादशी व्रत कथा

मार्गशीर्ष माह में आने वाली शुक्ल पक्ष की एकादशी को मोक्षदा एकादशी कहा जाता है। इस दिन को मोक्ष प्रदान करने वाली एकादशी कहा जाता है। कहा जाता है कि जो भी इस दिन विधि-विधान से व्रत रखता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। मोक्षदा एकादशी के दिन पढ़ी व सुने जाने वाली व्रत कथा इस प्रकार है-

धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा- हे माधव! उत्पन्ना एकादशी के बारे में मैंने आपसे विस्तार से सुना। कृपया आप मुझे अब मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के बारे में विस्तारपूर्वक बताएं। इस एकादशी व्रत को किस नाम से जाना जाता है और इसके व्रत का विधान क्या है? इस व्रत को रखने की विधि क्या है?

भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर के इन वचनों को सुनकर कहा- मार्गशीर्ष माह में आने वाली शुक्ल पक्ष की एकादशी को मोक्षदा एकादशी कहा जाता है। यह व्रत मोक्ष प्रदान करने वाला और सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इस व्रत को विधि पूर्वक रखने से आप अपने पूर्वजो को कष्टों से मुक्ति दिला सकते है। इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूं, इसे ध्यानपूर्वक सुनो।

गोकुल नाम के नगर में वैखानस नामक एक राजा रहता था। उसके राज्य में चारों वेदों के ज्ञाता एक ब्राह्मण रहा करते थे। वह राजा अपनी प्रजा का पुत्रवत पालन करता था। एक बार रात्रि में राजा ने एक स्वप्न देखा कि उसके पिता नरक में हैं। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।

प्रात: वह विद्वान ब्राह्मणों के पास गया और अपना स्वप्न सुनाया। राजा ने कहा – मैंने अपने पिता को नरक में कष्ट उठाते देखा है। उन्होंने मुझसे कहा कि हे पुत्र मैं नरक में पड़ा हूं। यहां से तुम मुझे मुक्त कराओ। जबसे मैंने ये वचन सुने हैं तबसे मैं बहुत बेचैन हूं। चित्त में बड़ी अशांति हो रही है। मुझे इस राज्य, धन, पुत्र, स्त्री, हाथी, घोड़े आदि में कुछ भी सुख प्रतीत नहीं होता। क्या करूँ ?

राजा ने कहा- हे ब्राह्मण देवताओं! इस दु:ख के कारण मेरा सारा शरीर जल रहा है। अब आप कृपा करके कोई तप, दान, व्रत आदि ऐसा उपाय बताइए जिससे मेरे पिता को मुक्ति मिल जाए। उस पुत्र का जीवन व्यर्थ है जो अपने माता-पिता का उद्धार न कर सके। एक उत्तम पुत्र जो अपने माता-पिता तथा पूर्वजों का उद्धार करता है, वह हजार मुर्ख पुत्रों से अच्छा है। जैसे एक चंद्रमा सारे जगत में प्रकाश कर देता है, परंतु हजारों तारे नहीं कर सकते। ब्राह्मणों ने कहा – हे राजन! यहां पास ही भूत, भविष्य, वर्तमान के ज्ञाता पर्वत ऋषि का आश्रम है। वे जरूर आपकी समस्या का हल करेंगे।

ऐसा सुनकर राजा मुनि के आश्रम पर गया। उस आश्रम में अनेक शांत चित्त योगी और मुनि तपस्या कर रहे थे। उसी जगह पर्वत मुनि बैठे थे। राजा ने मुनि को साष्टांग दंडवत किया। मुनि ने राजा से सांगोपांग कुशल पूछी। राजा ने कहा कि महाराज आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल हैं, लेकिन अकस्मात मेरे चित्त में अत्यंत अशांति होने लगी है। ऐसा सुनकर पर्वत मुनि ने आँखें बंद की और भूत विचारने लगे। फिर बोले हे राजन! मैंने योग के बल से तुम्हारे पिता के कुकर्मों को जान लिया है। उन्होंने पूर्व जन्म में कामातुर होकर एक पत्नी को रति दी किंतु सौत के कहने पर दूसरे पत्नी को ऋतुदान माँगने पर भी नहीं दिया। उसी पापकर्म के कारण तुम्हारे पिता को नर्क में जाना पड़ा।

तब राजा ने कहा ‍इसका कोई उपाय बताइए। मुनि बोले: हे राजन! आप मार्गशीर्ष एकादशी का उपवास करें और उस उपवास के पुण्य को अपने पिता को संकल्प कर दें। इसके प्रभाव से आपके पिता की अवश्य नर्क से मुक्ति होगी। मुनि के ये वचन सुनकर राजा महल में आया और मुनि के कहने अनुसार कुटुम्ब सहित मोक्षदा एकादशी का व्रत किया। इसके उपवास का पुण्य उसने पिता को अर्पण कर दिया। इसके प्रभाव से उसके पिता को मुक्ति मिल गई और स्वर्ग में जाते हुए वे पुत्र से कहने लगे- हे पुत्र तेरा कल्याण हो। यह कहकर स्वर्ग चले गए।

मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष की मोक्षदा एकादशी का जो व्रत करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत से बढ़कर मोक्ष देने वाला और कोई व्रत नहीं है।

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