Shattila Ekadashi Vrat Katha – षटतिला एकादशी व्रत कथा

हर साल माघ कृष्ण एकादशी को षटतिला एकादशी का व्रत रखा जाता है। इस एकादशी के दिन व्रत रखने के साथ ही इससे जुडी व्रत कथा पढ़े का भी विशेष महत्व माना जाता है। आइए जानते है क्या है षटतिला एकादशी व्रत कथा (Shattila Ekadashi Vrat katha) –

क्या है षटतिला एकादशी व्रत कथा (Shattila Ekadashi Vrat katha) –
वासुदेव कृष्ण के मुख से सभी एकादशियों के महत्व के बारे में विस्तारपूर्वक जानने के बाद अर्जुन ने उन्हें नमन किया और कहा- हे मधुसूदन! आपके श्रीमुख से एकादशियों के महातम्य को सुनकर मुझे असीम सुख की अनुभूति हुई है। कृपया कर अब षटतिला एकादशी के महत्व को भी बतलाइये।

“हे कुन्तीपुत्र! अब मैं तुम्हे माघ कृष्ण पक्ष में पड़ने वाली षटतिला एकादशी व्रत की कथा सुनाता हूं”-

षटतिला एकादशी का महत्त्व:
एक समय दालभ्य ऋषि ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा कि हे महाराज, पृथ्वी लोक में मनुष्य ब्रह्महत्यादि महान पाप करते हैं, पराए धन की चोरी तथा दूसरे की उन्नति देखकर ईर्ष्या करते हैं। साथ ही अनेक प्रकार के व्यसनों में फँसे रहते हैं, फिर भी उनको नर्क प्राप्त नहीं होता, इसका क्या कारण है?

वे न जाने कौन-सा दान-पुण्य करते है जिससे उनके पाप नष्ट हो जाते है। यह सब कृपापूर्वक आप कहिए। पुलस्त्य मुनि कहने लगे कि हे महाभाग! आपने मुझसे अत्यंत गंभीर प्रश्न पूछा है। इससे संसार के जीवों का अत्यंत भला होगा। इस भेद को इंद्र आदि भी नहीं जानते परंतु मैं आपको यह गुप्त तत्व अवश्य बताऊँगा।

उन्होंने कहा कि माघ मास लगते ही मनुष्य को स्नान आदि करके शुद्ध रहना चाहिए। इंद्रियों को वश में कर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या तथा द्वेष आदि का त्याग कर भगवान का स्मरण करना चाहिए। पुष्य नक्षत्र में गोबर, कपास, तिल मिलाकर उनके कंडे बनाना चाहिए। उन कंडों से 108 बार हवन करना चाहिए।

उस दिन मूल नक्षत्र हो और एकादशी तिथि हो तो अच्छे पुण्य देने वाले नियमों को ग्रहण करें। स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर सब देवताओं के देव श्री भगवान का पूजन करें और एकादशी व्रत धारण करें। रात्रि को जागरण करना चाहिए।

उसके दूसरे दिन धूप-दीप, नैवेद्य आदि से भगवान का पूजन करके खिचड़ी का भोग लगाएं । उसके पश्चात पेठा, नारियल, सीताफल या सुपारी का अर्घ्य देकर भगवान की स्तुति करें।

हे भगवान! आप दीनों को शरण देने वाले हैं, इस संसार सागर में फँसे हुओं का उद्धार करने वाले हैं। हे पुंडरीकाक्ष! हे विश्वभावन! हे सुब्रह्मण्य! हे पूर्वज! हे जगत्पते! आप लक्ष्मीजी सहित इस तुच्छ अर्घ्य को ग्रहण करें।

इसके पश्चात जल से भरा कुंभ (घड़ा) ब्राह्मण को दान करें तथा ब्राह्मण को श्यामा गौ और तिल पात्र देना भी उत्तम है। तिल स्नान और भोजन दोनों ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार जो मनुष्य जितने तिलों का दान करता है, उतने ही हजार वर्ष स्वर्ग में वास करता है।

1. तिल स्नान
2. तिल का उबटन
3. तिल का हवन
4. तिल का तर्पण
5. तिल का भोजन और
6. तिलों का ‍दान
इनके प्रयोग के कारण यह षटतिला एकादशी कहलाती है। इस व्रत के करने से अनेक प्रकार के पाप नष्ट हो जाते है।इतना कहकर पुलस्त्य ऋषि कहने लगे कि अब मैं तुमसे इस एकादशी की कथा कहता हूं।

षटतिला एकादशी का व्रत कथा
एक समय नारदजी ने भगवान श्रीविष्णु से यही प्रश्न किया था और भगवान ने जो षटतिला एकादशी का माहात्म्य नारदजी से कहा: सो मैं तुमसे कहता हूँ। भगवान ने नारदजी से कहा कि हे नारद! मैं तुमसे सत्य घटना कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो।

प्राचीनकाल में मृत्युलोक में एक ब्राह्मणी रहती थी। वह सदैव व्रत किया करती थी। एक समय वह एक मास तक व्रत करती रही। इससे उसका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया। यद्यपि वह अत्यंत बुद्धिमान थी तथापि उसने कभी देवताअओं या ब्राह्मणों के निमित्त अन्न या धन का दान नहीं किया था। इससे मैंने सोचा कि ब्राह्मणी ने व्रत आदि से अपना शरीर शुद्ध कर लिया है, अब इसे विष्णुलोक तो मिल ही जाएगा परंतु इसने कभी अन्न का दान नहीं किया, इससे इसकी तृप्ति होना कठिन है।

भगवान ने आगे कहा: ऐसा सोचकर मैं भिखारी के वेश में मृत्युलोक में उस ब्राह्मणी के पास गया और उससे भिक्षा माँगी।
वह ब्राह्मणी बोली: महाराज किसलिए आए हो?
मैंने कहा: मुझे भिक्षा चाहिए।

इस पर उसने एक मिट्टी का ढेला मेरे भिक्षापात्र में डाल दिया। मैं उसे लेकर स्वर्ग में लौट आया। कुछ समय बाद ब्राह्मणी भी शरीर त्याग कर स्वर्ग में आ गई। उस ब्राह्मणी को मिट्टी का दान करने से स्वर्ग में सुंदर महल मिला, परंतु उसने अपने घर को अन्नादि सब सामग्रियों से शून्य पाया।

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